अल्मोड़ा – पर्यावरण संस्थान में दिनांक 11 से 13 सितम्बर तक इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (ICIMOD), गोविन्द बल्लभ पंत राष्ट्रीय हिमालय पर्यावरण संस्थान (NIHE), और पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEF&CC), भारत सरकार द्वारा मिल कर “रीथिंकिंग इकोसिस्टम बेस्ड अप्रोच (ई.बी.ए.) फॉर वाटर, लाइवलीहुड्स, एंड डिजास्टर रिस्क रिडक्शन इन द इंडियन हिमालया” विषय पर एक बहुहितधारक चर्चा कार्यक्रम का आयोजन किया गया. इस तीन दिवसीय कार्यशाला का शुभारंभ दिनांक 11 सिंतम्बर, 2023 को हुआ। कार्यशाला में स्थायी भूमि और जल संसाधन प्रबंधन, पारिस्थितिकी तंत्र सेवा प्रबंधन, जलवायु परिवर्तन अनुकूलन, और टिकाऊ आजीविका आदि में रुचि रखने वाले विषय विशेषज्ञो द्वारा चर्चा की गयी। इस कार्यक्रम का मुख्य विषय पारिस्थितिकी आधारित समाधान (EbA) पर था, जो जल असुरक्षा, आजीविका असुरक्षा और आपदा जोखिम के साथ सामाजिक चुनौतियों का समाधान करेगा।
कार्यक्रम के प्रथम दिवस की शुरूआत करते हुए संस्थान के निदेशक प्रो0 सुनील नौटियाल ने सभी गणमान्य अतिथियों तथा विषय विशेषज्ञों का स्वागत किया तथा संस्थान के उद्देश्यों, हिमालयी क्षेत्र की समस्याओं तथा उनके समाधानों पर चर्चा की। उन्होंने बढ़ती जनसंख्या तथा शहरीकरण का हिमालयी क्षेत्र में प्रभाव तथा जलवायु परिवर्तन से प्राकृतिक संसाधनों में हो रहे बदलावों पर अपनी चिंता व्यक्त की. उन्होंने जलवायु परिवर्तन में हो रहे बदलाव को कम करने हेतु पर्यावरण संस्थान द्वारा किये जा रहे विभिन्न शोध कार्यों की जानकारी दी. उन्होने हिमालयी क्षेत्र के जैव विविधता क्षरण से संबंधित विषयों पर भी प्रकाश डाला।
कार्यक्रम में एफ0सी0डी0ओ0 से जुडे़ जॉन वॉरबर्टम ने विभिन्न पर्यावरणीय मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त किये। उन्होंने जलवायु परिवर्तन से हो रहे बदलावों को कम करने के लिए विभिन्न देशों की संस्थाओं से मिल कर कार्य करने की आवश्यकता पर बल दिया और कहा कि समय-समय पर इस प्रकार की कार्यशालाओं के आयोजन से तकनीकी निवारण पर विचार-विमर्श कर हिमालयी क्षेत्र में जनमानस हित के लिए नीतियों का निर्माण किया जा सकता है।
कार्यक्रम के दौरान शेखर घिमरे, निदेशक आई0सी0आई0एम0ओ0डी0 ने उनके संस्थान द्वारा हिमालयी क्षेत्र में किये जा रहे विभिन्न कार्ययोजनाओं पर प्रकाश डाला तथा प्राकृतिक संसाधनों के मानव जीवन में महत्वपूर्ण योगदान के प्रति अवगत कराया। उन्होंने आगे कहा कि जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप हिमनद् में बदलाव, परमाफ्रॉस्ट कम होने से अप्रत्यशित आपदाओं, भूस्खलन, इत्यादि को देखा जा रहा है। उन्होने सुझाव दिया कि मध्यम अवधि की कार्य योजनाओं से जलवायु परिवर्तन से हो रहे बदलाओं को कम किया जा सकता है।
डा० वन्दना शाक्या, आई0सी0आई0एम0ओ0डी0 हिमालयन, रैसिलियनस् इनैबलिन्ग एक्शन प्रोग्राम पर प्रस्तुतिकरण करते हुए बताया कि पारिस्थितिक तंत्र आधारित दृष्टिकोण से, हिमालयी क्षेत्र के जलवायु परिवर्तन से हो रहे बदलाव को कम किया जा सकता है। उन्होनें कहा कि नई तकनीकों का उपयोग करते हुए जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न हुए विभिन्न बदलावों के प्रभाव को कम करने में महत्वपूर्ण भुमिका निभाई जा सकती है। कार्यक्रम के दौरान संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डा0 आई0डी0 भट्ट ने तीन दिवसीय कार्यशाला के मुख्य उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हुए बताया कि हिमालयी क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाली नई चुनौतियों से उत्पन्न प्रभावों के निवारण के लिए भविष्य में विभिन्न कार्ययोजनायें तैयार की जा सकती है।
कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए प्रो0 एस0पी0 सिंह, पूर्व कुलपति, हेमवती नन्दन बहुगुणा केन्द्रीय विश्वविद्यालय, श्रीनगर ने भूगर्भ शास्त्र के जैव विविधता प्रबन्धन में योगदान के बारे में अवगत कराया एंव कहा कि हिमालयी क्षेत्र में उपस्थित प्राकृतिक संसाधनों एंव जैव विविधता के संरक्षण हेतु संसाधनों के सतत् उपयोग हेतु जनमानस को जाग़़़रूक करने की आवश्यकता है। डॉ0 हेम पाण्डे (पूर्व सचिव, भारत सरकार) ने विज्ञान की विभिन्न शाखाओं को आपस में मिल कर कार्य करने की आवश्यकता पर बल दिया जिससे कि हम हमारे आस-पास के प्राकृतिक संसाधनों में हो रहे बदलाव से उत्पन्न नई चुनौतियों के समाधान ढूढने में सहायक हो सकते हैं।
कार्यक्रम के प्रथम दिवस में उपस्थित मुख्य अतिथि श्री अजय टम्टा (सांसद, पिथौरागढ़-अल्मोड़ा क्षेत्र) ने कहा कि विभिन्न वैज्ञानिक तकनीकों का उपयोग कर, जलवायु परिवर्तनों के कारण आने वाली नई चुनौतियों एवं आपदाओं का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है जिससे हम उनके प्रभावों को कम कर सकते हैं। उन्होने कहा कि हमें हिमालयी औषधीय पादपों के हो रहे व्यापार एवं उनकी मूल्य श्रृंखला का अवलोकन एवं अन्वेषण करने की भी आवश्यकता है जो जैवविविधता संरक्षण एवं सामाजिक मांग के निवारण में सहायक हो सकती है। उन्होने भाँग एवं चीड़ के सकारात्मक गुणों का अवलोकन कर एवं नकारात्मक प्रभावों को कम कर इन्हें मानव हित एवं जैवविविधता संरक्षण में उपयोग करने हेतु जोर दिया.
कार्यक्रम के द्वितीय दिवस में संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. इन्द्र दत्त भट्ट ने पारिस्थितिकी तंत्र आधारित दृष्टिकोण विषय की संक्षिप्त पृष्ठभूमि तथा अग्रिम कार्यक्रम की रूप रेखा से अवगत कराया। संस्थान के बर्हिस्थाने पादप कुंज (सूर्यकुंज) में आयोजित चर्चा में विभिन्न संस्थानों से आए विषय विशेषज्ञों ने पारिस्थितिकी तंत्र आधारित दृष्टिकोण (ई.बी.ए.) के संदर्भ में हिमालयी क्षेत्र की समस्याओं तथा संभावित उपायो पर चर्चा की गयी।
सभी प्रतिभागियों एवं विषय विशेषज्ञों ने तीन अलग-अलग समूहों में हिमालयी क्षेत्र में पारिस्थितिकी तंत्र आधारित दृष्टिकोण अपनाने के फलस्वरूप पानी की कमी, आजीविका वृद्धि तथा आपदा जोखिम न्यूनीकरण विषय पर गहन मंथन किया। जल सुरक्षा के संदर्भ में सभी चुनौतियों पर चर्चा की गयी जिससे यह निष्कर्ष निकला कि पारम्परिक तकनीकों (गुरूत्वाकर्षण) आधारित सिचाई सुविधाओं के उचित प्रबंधन, वन संरक्षण एवं जल असुरक्षा के प्रमुख कारकों की पहचान करने की आवश्यकता है।
चर्चा के दौरान ई.बी.ए. संकेतकों जैसे पानी की गुणवत्ता, जल स्रोतो पर निर्भरता और जल स्रोतों का मानचित्रीकरण एवं आंकलन करने के सुझाव दिये गये। पर्वतीय क्षेत्रों में आजीविका वृद्धि के संदर्भ में औषधीय तथा जलवायु के अनुकूल फसलों का चुनाव करने के सुझाव भी दिये गये। परिचर्चा के दौरान कहा गया कि किसी भी योजना को क्रियान्वित करने के लिए योजनाओं के दिशा-निर्देशों को अनुकूलित एवं संकल्पित करने की आवश्यकता होती है। साथ ही सेक्टर विशिष्ट सफलता की कहानियों की पहचान करने की भी आवश्यकता है और किसी भी योजना या परियोजना की योजना बनाते समय प्रारंभिक चरण में हितधारकों और लाभार्थियों को शामिल करना सबसे महत्वपूर्ण कदम है। इसी क्रम में कार्यशाला में तीन प्रतिभाग समूहों द्वारा उपरोक्त ज्वलंतशील मुद्दों पर चर्चा की गयी. इसमें प्रथम समूह का प्रतिनिधित्व करते हुए डा० बी.एस. कालाकोटी ने कहा कि आजीविका वृद्धि हेतु बहुदेश्यीय पादपों जैसे कि कीवी, गेंदा, हल्दी तथा अन्य फलदार पौधों आदि के कृषिकरण को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. साथ ही उन्होंने बताया कि पारम्परिक कृषि पद्धतियों के आंकलन एवं दस्तावेजीकरण की अत्यंत आवश्यकता है ताकि हम सभी पारिस्थितिकीय तंत्र को मजबूत करने में अपनी भागीदारी निभा सकें। उन्होनें कहा कि पारम्परिक रूप से पर्यावरण संरक्षण में योगदान दे रहे लोगो को वित्तीय सहायता देकर प्रोत्साहित किया जा सकता है। साथ ही ईबीए दृष्टिकोण को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण कदम हितधारकों की क्षमता निर्माण और ईबीए के लिए उचित ढांचा या कार्यप्रणाली विकसित करना है।
कार्यक्रम के द्वितीय समूह द्वारा जल संकट के समाधान हेतु ऊर्जा आधारित विभिन्न बिंदुओं पर चर्चा की गई। इसके साथ ही जल सुरक्षा, पहाड़ी शीर्ष वन के संरक्षण और प्रकृति में गड़बड़ी के प्रमुख चालकों की पहचान करने के संदर्भ में आ रही चुनौतियों पर भी चर्चा की गई. साथ ही यह भी कहा गया कि किसी भी योजना को क्रियान्वित करने के लिए मुख्य बिन्दु बाधाओं पर चर्चा करना जरूरी होता है। जल सुरक्षा से निपटने के लिए, हमें विज्ञान नीति और अभ्यास के बीच अंतर को पाटने और स्थानीय संगठनों की भूमिका बढ़ाने की जरूरत है।
कार्यक्रम में तृतीय समूह द्वारा आपदा जोखिम न्यूनीकरण में ई.बी.ए.की महत्वता पर परिचर्चा की गई। समूह की परिचर्चा में डा. एस.पी. सती द्वारा हिमालयी परम्परा की महत्वता पर प्रकाश डालते हुए बताया गया कि पारम्परिक ज्ञान का समावेश नीति निर्धारण में किया जाना चाहिए। उन्होने कहा कि पारिस्थितिकी तंत्र आधारित दृष्टिकोण को मजबूत करके ही आपदाओं को कम करने में भागीदारी सुनिश्चित की जा सकती है। साथ ही समूह में उपस्थित डॉ. नवीन जुयाल, डॉ. वन्दना शाक्या, डॉ. अम्बा जमीर, डॉ. पी.सी तिवारी ने कहा वर्तमान में मौजूद योजनाओं जैसे सड़क निर्माण, इमारत निर्माण आदि में पारम्परिक ज्ञान का समावेश करना अति आवश्यक है जिससे पारिस्थितिकी तंत्र आधारित दृष्टिकोण को जनमानस के साथ जोड़ा जा सकता है।
कार्यशाला के दौरान 11 राज्यों के 27 विषय विशेषज्ञों के साथ सरकारी, गैर सरकारी संस्थाओं के प्रतिनिधियों, वैज्ञानिकों एवं शोधार्थियों सहित कुल 80 प्रतिभागियों ने सूर्यकुंज का भ्रमण किया जिसमें संस्थान के जैव विविधता संरक्षण एवं प्रबंधन केन्द्र द्वारा शोध कार्यों, क्रियान्वित परियोजनाओं आदि का प्रदर्शन किया गया। इस भ्रमण के दौरान नवगृह वाटिका, अष्टवर्ग वाटिका, नक्षत्र वाटिका, पोषक वाटिका, जल संरक्षण तकनीक, औषधीय पादप नर्सरी आदि मुख्य आकर्षण एवं परिचर्चा के केन्द्र रहे।
कार्यशाला के तृतीय दिवस के प्रथम सत्र में डा. संजीव भच्चर, आई0सी0आई0एम0ओ0डी0 एवं ई. महेन्द्र लोधी, वैज्ञानिक पर्यावरण संस्थान, अल्मोड़ा द्वारा हिन्दू कुश हिमालय में जलधाराओं की उपस्थिति, महत्वता एवं मानव जीवन में बहुउपयोगिता विषय पर प्रस्तुतिकरण प्रस्तुत किया गया। उपरोक्त विषय मुख्यतः हिमालयी जलधाराओं को बचाने, जल की गुणवत्ता का आंकलन, आई0सी0आई0एम0ओ0डी0 के द्वारा तैयार जलधाराओं के प्रबंधन हेतु प्रोटोकॉल इत्यादि पर केन्द्रित रहा। डा. भच्चर ने छः पथ पर माध्यम से जलधाराओं के प्रंबधन मुख्यतः मानचित्रकरण, डाटा आंकलन, हाइड्रोलोजिकल प्रक्रिया, दीर्घकालीन समय तक निगरानी एवं देखरेख करने हेतु बिन्दुओं को उजागर किया। साथ ही उन्होंने हिमालयी क्षेत्रों में जल प्रंबधन हेतु अपनाये जाने वाले पांरम्परिक प्रबंधन पद्धतियों जैसे कि चैक डेम का निर्माण, बॉज वृक्ष प्रजाति का रोपण, धारा, नौला, गधेरों आदि को प्रतिभागियों के सम्मुख प्रस्तुत किया। उन्होंने सिक्किम में आई0सी0आई0एम0ओ0डी0 द्वारा किये गये शोध एवं जनसहभागिता कार्यों को प्रस्तुत किया एवं उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ क्षेत्र के नकीना, दिगतोली ग्रामों में कैलाश परियोजना के तहत जलधाराओं को बचाने हेतु आई0सी0आई0एम0ओ0डी0 एवं पर्यावरण संस्थान अल्मोड़ा के साझा प्रयासों को भी प्रस्तुत किया। उन्होंने नीति आयोग भारत सरकार द्वारा जल प्रबंधन हेतु क्षेत्रीय प्रयासों के दस्तावेजीकरण, गैर-सरकारी संस्थाओं जैसे चिराग एवं एचजीवीएस के जनसहभागिता प्रयासों को भी उल्लेखित करते हुए भविष्य में मिलकर कार्य करने पर जोर दिया।
इसी क्रम में ई. महेन्द्र लोधी द्वारा संस्थान के इन-हाउस परियोजना के तहत भारतीय हिमालयी क्षेत्र के 11 हिमालयी राज्यों में जल प्रबंधन एवं डाटा एकत्रिकरण हेतु किये जा रहे शोध कार्यों को साझा किया। उन्होंने बताया कि संस्थान को भारत सरकार द्वारा डाटा एकत्रण एवं आंकलन हेतु नोडल एजेंसी के रुप में भी चयनित किया गया है एवं इस दिशा में विभिन्न कार्यों को किया जा रहा है। कार्यशाला के दौरान प्रो. उमा मेलकानिया ने हिमालयी क्षेत्र में पर्यावरण संस्थान, अल्मोड़ा एवं आई0सी0आई0एम0ओ0डी0 के साझा प्रयासों को सराहा तथा भविष्य में क्षेत्रीय पारंपरिक ज्ञान का दस्तावेजीकरण, बॉज, उत्तीस जैसे बहुउपयोगी पादप वृक्षों को प्राकृतिक जल स्रोतों के आस-पास रोपण करने, जल स्रोतों के मानचित्रण, डाटा एकत्रण एवं आंकलन करने हेतु स्थानीय स्तर पर मिलकर प्रयास करने की बात कही ताकि भविष्य हेतु जल स्रोतों के प्रबंधन एवं निगरानी में सहायता प्राप्त हो सके।
कार्यशाला को आगे बढाते हुए पुनः जल स्रोतों के प्रबंधन, निगरानी एवं ईकोसिस्टम बेस एप्रोच विषय पर मस्तिष्क मंथन हेतु तीन समूहों का गठन किया गया। प्रथम समूह द्वारा जल प्रबंधन हेतु पॉलिसी निर्माण, प्राकृतिक स्त्रोतों का बचाव, जन सहभागिता की भागीदारी एवं सरकारी, गैर-सरकारी विभागों में सामंजस्यता बनाने हेतु बिंदुओं पर परिचर्चा की गयी, जबकि द्वितीय समूह द्वारा जल स्रोतों के प्रंबधन एवं बचाव हेतु क्रियान्वित संस्थाओं जैसे कि पर्यावरण संस्थान अल्मोड़ा, आई0सी0आई0एम0ओ0डी0, चिराग, नाबार्ड, बी0एस0आई0 आदि की क्षमता निर्माण करना, विद्यालयों में छात्र-छात्राओं, अध्यापकों की संवेदनशीलता को बढ़ाना, नीति आयोग, जलशक्ति बोर्ड इत्यादि से सामंजस्य बनाने एवं क्षेत्रीय एवं राज्य स्तर पर नोडल एजेंसी को चयनित करने, इत्यादि महत्वपूर्ण पहलुओं पर विचार-विमर्श किया गया। तृतीय समूह द्वारा स्प्रिंग शेड मैनेजमेंट के वित्तीय सहायता हेतु सरकारी एवं गैर-सरकारी समूह, वर्ल्डबैंक इत्यादि से प्रोजेक्ट प्राप्त करना, जन सहभागिता द्वारा प्रंबधन को बढ़ावा इत्यादि विषयों पर गहन मंथन किया गया।
इस परिचर्चा के दौरान श्री हेम पाण्डे, पूर्व सचिव, भारत सरकार द्वारा क्षेत्रीय स्तर पर कार्य करने, वित्तीय सहायता हेतु परियोजना तैयार करने एवं तकनीकी विभागों की सहायता लेने पर जोर दिया। साथ ही वरिष्ठ वैज्ञानिक डा0 आई0डी0 भट्ट, द्वारा स्थानीय जनसहभागिता की जिम्मेदारी सुनिश्चित करते हुए क्षेत्रीय स्तर पर प्राकृतिक जल स्रोतों के प्रबंधन हेतु नीति निर्धारण करने की बात कही। साथ ही, उन्होनें राज्य स्तरीय सरकारी विभागों को आपस में सांमांजस्य बनाकर हिमालयी क्षेत्रों में जल स्रोतों की सुरक्षा प्रबंधन एवं लगातार निगरानी की बात कही।
इसी क्रम में डा. मिरनाली गोस्वामी द्वारा “भारतीय हिमालयी राज्यों में स्मार्ट/रेजिलेंट विलेज” शीर्षक पर प्रस्तुतीकरण दिया गया. उक्त परियोजना डी.एस.टी., भारत सरकार द्वारा वित्त पोषित है एवं हिमालयी राज्यों उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश तथा असम में क्रियान्वित है.
कार्यशाला के समापन सत्र की अध्यक्षता करते हुए श्री हेम पाण्डेय, पूर्व सचिव, भारत सरकार ने तीन दिवसीय कार्यशाला के शीर्षक “रीथिंकिंग इकोसिस्टम बेस्ड अप्रोच (ई.बी.ए.) फॉर वाटर, लाइवलीहुड्स, एंड डिजास्टर रिस्क रिडक्शन इन द इंडियन हिमालया” से निकले महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर प्रकाश डालते हुए बताया कि हमारे हिमालयी राज्यों के विभिन्न 7000 गावों में कुछ जगह पर “इको सिस्टम बेस्ड एप्रोच” के तर्ज पर जन सहभागिता हो रही है. वर्तमान जलवायु परिवर्तन के दर के मद्देनज़र हम सभी को सतत विकास दर से हिमालयी ग्रामों का उत्थान एवं विकास करना चाहिए. साथ ही, जल स्रोतों के प्रबंधन हेतु सरकारी, गैर सरकारी संस्थाओं को आपस में मिलकर कार्य करना चाहिए. भारत एवं राज्य सरकारों को जल संचय नीति के अंतर्गत फ्रेमवर्क तैयार करने चाहिए ताकि भविष्य में हिमालयी जल स्रोतों को बचाया जा सके. साथ ही इकोसिस्टम बेस्ड एप्रोच के अंतर्गत जन समुदाय, संस्थानों की क्षमता निर्माण सुनिश्चित होनी चाहिए.
इसी क्रम में डा. पी.सी. तिवारी ने बताया कि हिमालयी राज्य होने के कारण इकोसिस्टम बेस्ड एप्रोच एवं इंटीग्रेटेड प्रोग्राम आधार पर स्प्रिंग शेड मैनेजमेंट को आपस में जोड़ कर कार्य करना चाहिए. साथ ही शिक्षा विभाग, पंचायती राज्य सदस्यों, वन पंचायतों इत्यादि को आपस में जोड़ कर क्षेत्रीय विकास में कार्य किया जाना चाहिए.
पर्यावरण संस्थान के निदेशक द्वारा समापन सत्र में हेम पाण्डेय, सांसद अजय टम्टा एवं सभी प्रतिभागियों, आई0सी0आई0एम0ओ0डी0, प्रिंट मीडिया को धन्यवाद प्रेषित किया गया. साथ ही प्रो. नौटियाल ने बताया कि वर्तमान समय की आवश्यकतानुसार सभी सरकारी, गैर सरकारी संस्थाओं को विभिन्न विकास बिन्दुओं पर मिलकर कार्य करना चाहिए. इस तीन दिवसीय कार्यशाला के उपरांत हमको चयनित क्षेत्रों में डाटा एकत्रण, आंकलन, जन सहभागी कार्य, शोध कार्यों को तुरंत करने की आवश्यकता है एवम हम इस दिशा में अग्रसर होने को प्रतिबद्ध हैं। प्रो. नौटियाल ने हिंडोलाखाल क्षेत्र के पारंपरिक ज्ञान को विज्ञान से जोड़ कर मॉडल तैयार करने एवम विस्तारित करने की ओर भी जोर दिया।
इसी क्रम में डा. आई.डी. भट्ट ने हिमालय क्षेत्रों की विभिन्न अच्छी पद्धतियों का दस्तावेजीकरण करने, स्थानीय स्तर पर ईबीए एप्रोच को सफल बनाने हेतु प्रयासरत रहने की बात कही। डा भट्ट ने आई0सी0आई0एम0ओ0डी0 प्रतिनिधियों डा संजीव भच्चर, डा वंदना शाक्या, सुश्री सवीना उप्रेती, श्री आवेश पांडे, सुश्री इंदु समेत 11 राज्यों से आए सभी प्रतिभागियों और पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEF&CC), भारत सरकार का धन्यवाद किया।
कार्यक्रम समापन में सुश्री सवीना उप्रेती आई0सी0आई0एम0ओ0डी0 ने धन्यवाद प्रेषित करते हुए प्रो. सुनील नौटियाल, निदेशक, अजय टम्टा, सांसद, हेम पांडेय, पूर्व सचिव, डा. एस.पी. सिंह, पूर्व कुलपति, डा. आर.के. मैखुरी, डा. रमा मैखुरी, डा. जॉन वॉरबर्टम, डा. राजेंद्र कोत्रू, डा. शेखर घिमिरे, डा. नवीन जुयाल, डा. एस.पी. सती, डा. पी.सी. तिवारी, डा. आई.डी. भट्ट, डा. उमा मेलकानिया, डा. जे.सी. कुनियाल, डा. संजीव भच्चर, डा. शिल्पी पॉल, डा. पारोमिता घोष, डा. एम्.एस. लोधी, डा. ए.के. सहानी, डा. सतीश आर्य, डा. मिथिलेश सिंह, डा. के.एस. कनवाल, डा. शैलजा पुनेठा, डा. आशीष पाण्डेय, ई. आशुतोष तिवारी, डा. एकनाथ गोसावी, डा. सुमित राय, डा. सुरेश राणा, डा. सुबोध ऐरी, ई. ओ.पी. आर्य, सजीश कुमार सहित पर्यावरण संस्थान के समस्त वैज्ञानिक, शोधार्थी, कर्मचारी एवं सभी प्रतिभागियों का विशेष आभार जताया.
इस तीन दिवसीय कार्यशाला में 11 राज्यों के 27 विषय विशेषज्ञों के साथ सरकारी, गैर सरकारी संस्थाओं के प्रतिनिधियों, वैज्ञानिकों एवं शोधार्थियों सहित कुल 80 प्रतिभागियों के द्वारा प्रतिभाग किया गया।