अल्मोड़ा- एक बयान में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी मीडीया इंचार्ज अल्मोड़ा श्रीमती आकांक्षा ओला का ने कहा कि भाजपा ने अल्मोड़ा और उत्तराखंड का स्वास्थ्य बिगाड़ दिया है।अल्मोड़ा में कांग्रेस के बनाये गए मेडिकल कॉलेज को 10 साल में भी चालू नहीं करा पाई भाजपा

खोखले वायदे,अधूरी सपने और जुमलों की भरमार से उत्तराखंड की सेहत बेज़ार हो गई है।तीन मुख्यमंत्रियों को बदलने के बावजूद भाजपा उत्तराखंड और खासकर अल्मोड़ा के लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएँ दिलवाने में पूरी तरह नाकाम रही है।मजबूरन लोगों को इलाज के लिए दूर-दराज़ या दिल्ली जाना पड़ता है।कोरोना काल में भी हमने देखा कि किस तरह से उत्तराखंड के लोग आक्सीजन की कमी,दवाइयों और वेंटीलेटर जैसे उपक्रमों की कमी से झूझ रहे थे।भाजपा की नीति, नियत और नैतिकता में ही खोट है।वो एक स्वास्थ्य उत्तराखंड बनाने में बिलकुल विफल रही है।आंकडे आप सबके सामने हैं।स्वास्थ्य सेवाओं पर सबसे कम बजट खर्च किया जा रहा है।उन्होंने कहा कि भाजपा शासित उत्तराखंड हिमालयी राज्यों में स्वास्थ्य सेवाओं पर सबसे कम बजट खर्च कर रहा है।राज्य में स्वास्थ्य सेवाओ के नाम पर एक व्यक्ति पर एक दिन में औसत 5.38 रुपये खर्च किए जा रहे हैं।एसडीसी फाउंडेशन ने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की स्टेट फाइनेंस रिपोर्ट 2019 के आधार पर इस संदर्भ में एक रिपोर्ट जारी की है।रिपोर्ट के अनुसार पिछले तीन सालों के बजट का तुलनात्मक अध्ययन करने से पता चला कि राज्य हिमालयी राज्यों में आम लोगों की स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करने के मामले में सबसे पीछे है। रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2017 से 2019 के बीच हिमालयी राज्यों में स्वास्थ्य सेवाओं पर अरुणाचल प्रदेश ने सबसे ज्यादा 28,417 रुपये प्रति व्यक्ति खर्च किये हैं।जबकि उत्तराखंड ने इन तीन वर्षों में सबसे कम मात्र 5,887 रुपये प्रति व्यक्ति खर्च किये हैं।

एसडीसी के रिसर्च हेड ऋषभ श्रीवास्तव ने बताया कि 2017 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के अनुसार प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष स्वास्थ्य सेवाओं पर कम से कम 3800 रुपये खर्च किए जाने चाहिए।उत्तराखंड का स्वास्थ्य पर खर्च राज्य सकल घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) का सिर्फ 1.1% है।

लगभग 50-60 किलोमीटर के क्षेत्र में करीब 20 से अधिक गावों की 10 से 12 हजार की आबादी के लिए एक मात्र स्वास्थ्य केंद्र है।राज्य के स्वास्थ्य विभाग में 24,451 राजपत्रित और अराजपत्रित पद स्वीकृत हैं, जिनमे से 8,242 पद वर्तमान में रिक्त है जो कुल स्वीकृत पदों का करीब 34% है। यह आंकड़े साल 2021-22 के बजट में दिए गए हैं।इसी प्रकार रूरल हेल्थ स्टेटिस्टिक्स रिपोर्ट 2019-20 के आंकड़ों पर गौर करें तो उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्र में कुल 1,839 उपकेंद्र हैं, जिनमें से 543 उपकेंद्र ऐसे हैं जिनके पास अपनी बिल्डिंग नहीं है, इसके अलावा कुल 257 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में से 30 के पास अपनी बिल्डिंग नहीं है। इन सेंटरों के स्टाफ़ की बात करें तो 56 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में स्पेशलिस्ट के कुल 236 पद स्वीकृत है, जिनमे से मात्र 32 पदों पर ही विशेषज्ञ डॉक्टर नियुक्त हैं बाकि के 204 पद रिक्त हैं, जो कि कुल स्वीकृत पदों का 86% है। इंडियन पब्लिक हेल्थ स्टेंडर्ड (आइपीएचएस) के मानकों के अनुसार प्रत्येक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में चार विशेषज्ञ (सर्जन, प्रसूति व स्त्री रोग विशेषज्ञ, बाल रोग विशेषज्ञ और चिकित्सा विशेषज्ञ) होने चाहिए। उत्तराखंड में एक भी ऐसा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं है जिसमे सभी चार विशेषज्ञ कार्यरत हों।

प्रदेश में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों के लिए सर्जन के 61 स्वीकृत पदों में से 55 पद रिक्त हैं, ग्रामीण क्षेत्रों में रेडियो ग्राफर के कुल 56 पदों में से 47 पद ख़ाली पड़े हैं।        इसी प्रकार ग्रामीण प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में लेबोरेटरी टेक्नीशियन के लिए कुल 313 लोगों की आवश्यकता है जिसमे से केवल 61 पदों पर नियुक्ति की गयी है। नर्सिंग स्टाफ़ के भी 649 पदों में से 406 पद रिक्त हैं।उन्होंने कहा कि               यह रिपोर्ट बताती हैं कि वर्तमान में उत्तराखंड के शहरी क्षेत्रों में जनसंख्या के हिसाब से 78 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र होने चाहिए जबकि वर्तमान में केवल 38 केंद्र हैं।

सोशल डेवलपमेंट फ़ॉर कम्युनिटी (एसडीसी) फाउंडेशन द्वारा उत्तराखंड सरकार के चिकित्सा,स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग से सूचना के अधिकार के तहत दी गयी जानकारी पर बनाई गयी रिपोर्ट के अनुसार, राज्य में विशेषज्ञ डॉक्टरों के कुल 1,147 पदों में से 654 पद रिक्त हैं। रिपोर्ट के अनुसार राज्य में केवल 43% विशेषज्ञ डॉक्टर ही सरकारी अस्पतालों में नियुक्त हैं।         भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी रूरल हेल्थ स्टेटिस्टिक्स रिपोर्ट 2019-20 के अनुसार उत्तराखंड राज्य में इन्फेंट मोर्टेलिटी रेट (IMR) या शिशु मृत्यु दर (1000 नए जन्मे बच्चों में ऐसे बच्चे जिनकी मृत्यु एक साल के भीतर हो जाती है) कुल 31 है, जो ग्रामीण क्षेत्र में 31 और शहरी क्षेत्र में 29 है। जबकि पड़ोसी राज्य हिमांचल की बात करे तो कुल शिशु मृत्यु दर 19 है जो ग्रामीण क्षेत्र में 20 और शहरी क्षेत्र में 14 है।भारतीय रिजर्व बैंक की राज्यों के बजट पर आधारित वार्षिक रिपोर्ट और उत्तराखंड विधानसभा में प्रस्तुत बजट दस्तावेजों के विश्लेषण से पता चलता है कि उत्तराखंड में वर्ष 2001-02 से लेकर 2020-21 तक राज्य सरकार स्वास्थ्य सेवाओं पर बजट अनुमान में रुपये 22,982 करोड़ खर्च करने का वादा किया था लेकिन 2019-20 तक वास्तविक खर्चों और 2020-21 के पुनरीक्षित अनुमान तक सिर्फ रुपये 18,697 करोड़ खर्च किया, रुपये 4,285 करोड़ ऐसा है जो सरकार द्वरा खर्च ही नहीं किया गया। उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं पर जहाँ एक और ज्यादा बजटीय खर्च की जरूरत है वहीं राज्य सरकार द्वारा वास्तविक खर्चों में की जा रही यह कटौती स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता पर ख़ासा प्रभाव डाल रही हैं।भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी रूरल हेल्थ स्टेटिस्टिक्स रिपोर्ट 2019-20 के अनुसार उत्तराखंड राज्य में इन्फेंट मोर्टेलिटी रेट (IMR) या शिशु मृत्यु दर (1000 नए जन्मे बच्चों में ऐसे बच्चे जिनकी मृत्यु एक साल के भीतर हो जाती है) कुल 31 है, जो ग्रामीण क्षेत्र में 31 और शहरी क्षेत्र में 29 है। जबकि पड़ोसी राज्य हिमांचल की बात करे तो कुल शिशु मृत्यु दर 19 है जो ग्रामीण क्षेत्र में 20 और शहरी क्षेत्र में 14 है।    प्राइमरी हेल्थ सेंटर (पीएचसी) और कम्यूनिटी हेल्थ सेंटर (सीएचसी) की कमी उत्तराखंड के ज़िला अस्पतालों की परफॉर्मेंस से जुड़ी कैग (भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक) रिपोर्ट है। ये रिपोर्ट 11 फरवरी 2021 को सबमिट की गई। कैग रिपोर्ट के मुताबिक आबादी के लिहाज से उत्तराखंड में 418 प्राइमरी हेल्थ सेंटर (पीएचसी) और 105 कम्यूनिटी हेल्थ सेंटर (सीएचसी) होने चाहिए। जबकि मार्च 2019 तक राज्य में मात्र 259 पीएचसी और 86 सीएचसी थे।लिंग अनुपात में             साल (2021) की नीति आयोग की रिपोर्ट ने जन्मगत लिंग अनुपात को लेकर जो आंकड़े जारी किए, उनमें उत्तराखंड को अंतिम स्थान पर रखा. केंद्रीय संस्था ने सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स की सूची जारी करते हुए इसमें कहा था कि उत्तराखंड बालक बालिका अनुपात के मामले में देश का सबसे पिछड़ा राज्य है, जहां यह अनुपात प्रति 1000 बालकों पर 840 बालिकाओं का है.

इन आंकड़ों को अब उत्तराखंड सरकार ने चुनौती दी है और साफ तौर पर इन्हें गलत बताते हुए कहा है कि इस गलती से राज्य की छवि खराब हुई है, जिसके बारे में आयोग को लिखा जाएगा. नीति आयोग द्वारा जारी आंकड़ों पर महिला एवं बाल विकास मंत्री रेखा आर्य ने कहा की नीति आयोग और राज्य के आंकड़ों के बीच काफी फर्क है. उत्तराखंड ने दावा किया है कि उसके डेटा के मुताबिक राज्य में जन्म पर सेक्स रेशो 949 का है यानी नीति आयोग के आंकड़ों से तुलना की जाए तो 109 अंकों का बड़ा अंतर है।पहले भी रहा है विवाद यह पहली बार नहीं है,जब आंकड़ों में फर्क को लेकर नीति आयोग और उत्तराखंड सरकार भिड़े हों. 2019 में, एसडीजी इंडेक्स में सेक्स रेशो 841 बताया गया था, लेकिन तब भी उत्तराखंड ने स्पष्ट करते हुए दावा किया था कि रेशो 938 था. इसी तरह, 2018 में नीति आयोग ने राज्य में 850 के रेशो का डेटा दिया था जबकि राज्य ने 922 का. आर्य ने यह मानने से साफ इनकार किया कि उत्तराखंड सेक्स रेशो के मामले में देश में सबसे पीछे है. रिपोर्ट के ही मुताबिक उन्होंने यह भी कहा कि यह रेशो बेहतर होने के लिए केंद्र के स्वास्थ्य मंत्रालय के साथ ही महिला एवं बाल विकास मंत्रालय से भी राज्य को तारीफ मिल चुकी है।