संपादक महोदय का आया फोन
सुबह-सुबह घनघना उठा, जब मोबाइल का टोन,
देखा तो स्क्रीन पर चमका, संपादक महोदय का फोन।
धड़कन बढ़ी, पसीना आया, मन में उठे सवाल,
क्या कोई गलती हो गई, या मिला कोई कमाल?
धीरे-धीरे उठाया मैंने, कांपते थे मेरे हाथ,
मन में आशा, भय भी थोड़ा, सोचा क्या होगी बात।
“प्रणाम महोदय!” कहा सकुचाकर, हृदय में उठा तूफान,
उनकी हँसी गूंजी कानों में, मिटा गया हर गुमान।
बोले वे मुस्काकर मुझसे, “लेख तुम्हारा पढ़ा अभी,
भावना में जो गहराई है, सच में अद्भुत लगी सभी।
हर शब्द में है आग तुम्हारी, हर वाक्य में है जान,
तुम्हारी लेखनी में दिखती है, समाज की सच्ची पहचान।”
सुनकर यह अभिभाषण, मन मेरा हर्षाया,
मेहनत का फल मिला है मुझको, हृदय पुलकित छाया।
पर तभी अचानक बोले वे, स्वर में गूंजा प्यार,
“अब समय है कुछ नया लिखने का, उठाओ फिर से विचार।
देश, समाज, संस्कृति पर, कलम तुम्हारी चले,
हर गरीब, हर दुखी की, पीड़ा तुम्हारे शब्दों में ढले।
तुम सृजन के दीप जलाकर, अंधियारे को हराओ,
कलम को कर सशक्त, सच्चाई को अपनाओ।”
मन में नई उमंग जगी, आंखों में नया प्रकाश,
अब तो लिखना ही होगा, हर पंक्ति में विश्वास।
धन्यवाद दिया उन्हें दिल से, प्रणाम कर झुका सिर,
अब कलम नहीं रुकेगी मेरी, जब तक ना बदले तक़दीर।
संपादक जी के इस फोन ने, जगा दिया अभिमान,
अब हर शब्द बनेगा शोला, हर पंक्ति होगी तूफान।
समाज बदलने की ठानी है, अब बढ़ते जाना है,
लेखनी से दीप जलाकर, दुनिया को समझाना है।
कपिल मल्होत्रा
स्वरचित कविता में “संपादक महोदय का आया फोन” पर कुछ शब्द

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